बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

अशांत मन का प्रबंधन किसी भी काल में चुनौती भरा कार्य रहा है। आज भी है। योग ने तब भी राह निकाली। आज भी योग से ही राह निकलेगी। तब वैज्ञानिक संत योगसूत्र दिया करते थे। आधुनिक युग में संन्यासी उन योगसूत्रों को सरलीकृत करके जन सुलभ करा चुके हैं और एक समय इसे संशय की दृष्टि से देखने वाला विज्ञान चीख-चीखकर कह रहा है – “योग का वैज्ञानिक आधार है। इसे अपनाओ, जिंदगी का हिस्सा बनाओ।“ पर अब लोगों के सामने यह सवाल नहीं है कि योग अपनाएं या नहीं। सवाल है कि अपेक्षित परिणाम किस तरह मिले?

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आधुनिक युग में भी जब-जब जीवन संकट में पड़ा और अवसाद के क्षण आए, योग की महती भूमिका को सबने स्वीकारा। परमहंस योगानंद 100 साल पहले क्रियायोग का प्रचार करने जब अमेरिका गए थे, उस समय स्पैनिश फ्लू के कारण आज जैसी ही भयावह स्थिति थी। उस बीमारी से इतने लोग मरे थे कि लंबे समय तक हिसाब ही लगाया जाता रहा कि कितने मरे। पर सही उत्तर फिर भी नहीं मिला था। अंत में तय हुआ कि लगभग पांच करोड़ लोग मरे होंगे। पूरी दुनिया में हालात ऐसे थे कि विभिन्न कारणों से मानसिक रोगियों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हो गई थी। इस स्थिति से उबरने के लिए आमतौर पर पश्चिमी जगत के एक वर्ग के लिए अपरिचित योग ही सहारा बना था। जिन लोगों ने क्रियायोग को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, उन्हें अवसाद से मुक्ति मिली थी। मन का बेहतर प्रबंधन होने के कारण जीवन को पटरी पर लाना आसान हो गया था।

महानिर्वाण तंत्र, यामल तंत्र और दूसरे अन्य ग्रंथों में शिव को योग का आदिगुरू बतलाया गया हैं। उनकी प्रथम शिष्या पार्वती ने उनसे सवाल किया था – “स्वामी, मन चंचल है। एक जगह टिकता नहीं। कोई उपाय बताएं कि मन काबू में आ सके।“  शिवजी ने इस सवाल के जबाव में मन की सजगता और एकाग्रता के इनती विधियां बतलाई कि पूरा योगशास्त्र तैयार हो गया। कमाल यह कि इनमें से एक सूत्र पकड़कर भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। खैर, पार्वती जी की समस्या अलग थी। उन्हें मन के पार जाना था। उस अंतर्यात्रा के लिए चित्ति की शांति जरूरी थी। महाभारत के दौरान वीर अर्जुन विषाद से घिर गए थे। मन अशांत हो गया था। विषादग्रस्त अर्जुन को रास्ते पर लाने के लिए सर्व शक्तिशाली श्रीकृष्ण को इतने उपाय करने पड़े थे कि सात सौ श्लोकों वाली श्रीमद्भगवतगीता की रचना हो गई। आधुनिक युग में भी वही श्रीमद्भगवतगीता मनोविज्ञान से लेकर योगशास्त्र तक का श्रेष्ठ ग्रंथ है। 

मौजूदा समय में भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए मन के प्रबंधन की जरूरत आ पड़ी है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने हमारे जीवन का चक्का इस तरह जाम किया कि शरीरिक श्रम की कमी के कारण स्नायविक तनाव चरम पर है। दूसरी तरफ मानसिक पीड़ाएं अलग-अलग रूपों में अपना असर दिखा रही हैं। इसकी वजहें सर्वविदित हैं। किसी का अपना काल के गाल में समां जा रहा है तो किसी के लिए आर्थिक मार को सहन कर पाना मुश्किल है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सत्तर फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। मन बीमार तो तन बीमार। इसके उलट तन बीमार तो मन भी बीमार होता है। मन की समस्या पहले से ही विकट है। आलम यह है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 10 अक्तूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाना पड़ता है और समस्या के समाधान के लिए कारगर उपायों पर मंथन करना होता है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण इस साल इस आयोजन की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ी हुई है। पर दूर-दूर तक नजर दौड़ाएं तो कारगर हथियार के तौर पर योग ही दिखता है। दवाओं से बीमारियों के लक्षणों का इलाज हो जाता है। तन-मन में मची उथल-पुथल को किसी दवा से व्यवस्थित नहीं किया जा सकता। इसके लिए सर्वप्रथम इंद्रियों को वश में करना जरूरी है और इसके लिए योग से बड़ी लकीर नहीं खिंची जा सकी है।

पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि मेडिटेशन के अनेक विशेषज्ञ संकटग्रस्त लोगों से सीधे ध्यान का अभ्यास कराते हैं। ओशो कहते थे कि योग में इंद्रियों को वश में करने से अभिप्राय इंद्रियों को मारकर विषाक्त बनाना नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण करना है। वे इस संदर्भ में मनोविज्ञानी थियोडोर रैक का संस्मरण सुनाते थे – “यूरोप में एक छोटा-सा द्वीप है। कैथोलिक मोनेस्ट्री वाला वह द्वीप महिलाओं के लिए वर्जित है। वहां आध्यात्मिक साधना के लिए पुरूष जाते हैं। जब उनकी मन:स्थिति का अध्ययन किया गया तो पता चला कि उनके मानस पटल पर स्त्रियां ही छाई रहती हैं। वे जितना ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, वासना घनीभूत होती जाती है।“ जाहिर है कि  विचारों का दमन मन को विषाक्त बना देता है।

 

सवाल है मन का रूपांतर कैसे हो? इसके लिए राजयोग का सबसे महत्वपूर्ण अंग प्रत्याहार और प्रत्याहार की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया योगनिद्रा तो उपयुक्त है ही और भी अनेक क्रियाएं हैं। उनके बिना बगुला ध्यान तो लग सकता है। पर वह ध्यान नहीं लगेगा, जिससे मानसिक पीड़ाएं दूर होती हैं और मन का प्रबंधन हो जाता है। कोरोना काल में योग पर जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद ही पहले कभी हुई रही होगी। देश के तमाम सिद्ध संत और योगी जीवन को व्यवस्थित करने के यौगिक उपाय बता चुके हैं। सतर्क लोग षट्कर्म जैसे, नेति, कुंजल और आसन व प्राणायाम का अभ्यास कर भी रहे हैं। पर मन का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।

इस चुनौती का सामना योग के व्यस्थित मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है। जिस तरह कॉलेजी शिक्षा के लिए उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा जरूरी है, उसी तरह षट्कर्म, आसन और प्राणायाम साधे बिना प्रत्याहार नहीं सधेगा, जो मन की सजगता के लिए जरूरी है। मन सजग नहीं है तो एकाग्र नहीं होगा। यानी धारणा में सफलता नहीं मिलेगी। फिर तो ध्यान फलित होने की उम्मीद ही करना फिजुल है।  

(लेखक ushakaal.com के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

 

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